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फसल के रोग

इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं - काला तिल (Black Sesame)

इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं - काला तिल (Black Sesame)

तिल की खेती बहुत कम खर्च में ज्यादा मुनाफा देती है। तिल एक नकदी फसल है और अरसे से भारत में इसकी खेती की जाती रही है। आज भी भारत में इसकी खेती होती है।

गलत अवधारणा

तिल की खेती को लेकर कई प्रकार की गलत अवधारणाएं भी किसानों के मन में चलती रहती हैं। पहली तो गलत अवधारणा यह है कि अगर ऊपजाऊ भूमि पर तिल की खेती की जाएगी तो जमीन बंजर हो जाएगी। यह निहायत ही गलत अवधारणा है। ऐसा हो ही नहीं सकता। तिल की खेती सिर्फ और सिर्फ बंजर या गैर उपजाऊ भूमि पर ही होती है। जो जमीन आपकी नजरों में उसर है, बंजर है, अनुपयोगी है, वहां तिल की फसल लहलहा सकती है। फिर वह जमीन बंजर कैसे हो सकती है, यह समझना पड़ेगा। आखिर बंजर भूमि दोबारा बंजर कैसे होगी? ये सब भ्रांतियां हैं। इन भ्रांतियों को महाराष्ट्र में बहुत हद तक किसानों को शिक्षित करके दूर किया गया है पर देश भर के किसानों में आज भी यह भ्रांति गहरे तक बैठी है जिस पर काम करना बेहद जरूरी है। ये भी पढ़े: तिलहनी फसलों से होगी अच्छी आय

कैसी जमीन चाहिए

किसानों को यह समझना होगा कि काले तिल की खेती के लिए उन्हें जो जमीन चाहिए, वह रेतीली होनी चाहिए। यानी ऐसी जमीन, जहां पानी का ज्यादा ठहराव न हो। ध्यान रखें, तिल की पानी से जंग चलती रहती है। तिल की फसल को उतना ही पानी चाहिए, जितने में फसल की जड़ में जल पहुंच जाए। बस। तो, अगर आपके पास बेकार किस्म की, उबड़-खाबड़, रेतीली जमीन है तो आप उसे बेकार न समझें। वहां आप थोड़ा सा श्रम करके, थोड़ा उसे लेबल में लाकर तिल की खेती कर सकते हैं। भ्रांतियों के साये में रहेंगे तो कुछ नहीं होगा।

तिल के प्रकार

kale til ke prakar

तिल के तीन प्रकार होते हैं। पहला-उजला तिल, दूसरा-काला तिल और तीसरा-लाल तिल। ये तीनों किस्म के तिल अलग-अलग बीजों से होते हैं पर उनकी खेती का तरीका हरगिज अलग नहीं होता। जो खेती का तरीका लाल तिल का होता है, वही काले तिल का और वही सफेद तिल का। यह तो किसानों को सोचना है कि उन्हें लाल, काला और सफेद में से कौन सा तिल उपजाना है क्योंकि बाजार में तीनों किस्म के तिल के रेट अलग-अलग हैं। तो, यहां पर भी आप किसी भ्रम में न रहें कि इन तीनों किस्म के तिल की खेती के लिए आपको अलग-अलग व्यवस्था बनानी होगी। व्यवस्था एक ही होगी। जमीन से लेकर खेती का तौर-तरीका एक ही रहेगा। इसमें किसी किस्म का कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।

तैयारी

अगर आप कहीं काले तिल की खेती करना चाहते हैं तो बस एक काम कर लें। मिट्टी को भुरभुरी कर लें। मिट्टी को भुरभुरी करने के दो रास्ते हैं-एक ये कि आप हल या ट्रैक्टर से पूरी जमीन को एक बार जोत लें और फिर उस पर पाड़ा चला लें। पाड़ा चलाने से मिट्टी स्वतः भुरभुरी हो जाती है। अगर उसमें भी कोई कसर रह गई हो तो दोबारा पाड़ा चला लें। अगर आपकी मिट्टी भुरभुरी हो गई हो तो आप फसल बो सकते हैं। ध्यान रहे, काला तिल या किसी किस्म भी किस्म का तिल तब बोएं, जब माहौल शुष्क हो। इसके लिए गर्मी का मौसम सबसे उपयुक्त है। माना जाता है कि मई-जून के माह में तिल की बुआई सबसे बेहतर होती है। ये भी पढ़े: भिंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल के बीज

kale til ke bij

तिल के बीज कई प्रकार के होते हैं। बाजार में जो तिल उपलब्ध हैं, उनमें पी 12, चौमुखी, छह मुखी और आठ मुखी बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। आप जिस बीज को लेना चाहें, ले सकते हैं। लेकिन अगर आपको बीज की समुचित जानकारी नहीं है तो आप अपने ब्लाक के कृषि अधिकारी या सलाहकार से मिल सकते हैं और उनसे पूछ सकते हैं कि किस बीज से प्रति एकड़ कितनी पैदावार मिलेगी। उस आधार पर भी आप बीज का चयन कर सकते हैं। यह काम बहुत आराम से करना चाहिए।

बंपर पैदावार

मोटे तौर पर माना जाता है कि एक एकड़ में डेढ़ किलोग्राम बीज का छिड़काव अथवा रोपण करना चाहिए। एक एकड़ में अगर आप डेढ़ किलो बीज का इस्तेमाल करते हैं, सही तरीके से फसल की देखभाल करते हैं तो मान कर चलें कि आपकी उपज 5 क्विंटल या उससे भी ज्यादा हो सकती है। ये भी पढ़े: Fasal ki katai kaise karen: हाथ का इस्तेमाल सबसे बेहतर है फसल की कटाई में

बीज शोधन

एक दवा है। उसका नाम है ट्राइकोडर्मा। इस दवा को तिल के बीज के साथ मिलाया जाता है। बढ़िया से मिलाने के बाद उसे छांव में कई दिनों तक रख कर सुखाया जाता है। जब तक बीज पूरी तरह न सूख जाएं, उसका रोपण ठीक नहीं। जब दवा मिश्रित बीज सूख जाएं तो उसे खेत में रोपना ज्यादा फायदेमंद माना जाता है। कई किसान जानकारी के अभाव में बिना दवा के ही बीज रोप देते हैं। यह एकदम गलत कार्य है। बीजारोपण तभी करें जब उसमें ट्राइकोडर्मा नामक दवा बहुत कायदे से मिला दी गई हो। इसका इंपैक्ट सीधे-सीधे फसल पर पड़ता है। दवा देने से पौधे में कीट नहीं लगते। बिना दवा के कीट लगने की आशंका 100 फीसद होती है। फसल भी कम होती है।

कैसे करें बुआई

kale til ki Buwai

बेहतर यह हो कि जून-जुलाई में जैसे ही थोड़ी सी बारिश हो, आप खेत की जुताई कर डालें। जब जुताई हो जाए, मिट्टी भुरभुरी हो जाए तो उसे एक दिन सूखने दें। जब मिट्टी थोड़ी सूख जाए तब तिल के मेडिकेटेड बीज को आप छिड़क दें।

खर-पतवार को रोकें

आपने बीज का छिड़काव कर दिया। चंद दिनों के बाद उसमें से कोंपलें बाहर निकलेंगी। उन कोपलों के साथ ही आपको खर-पतवार पर नियंत्रण करना होगा। तिल के पौधे के चारों तरफ खर-पतवार बहुत तेजी से निकलते हैं। उन्हें उतनी ही तेजी से हटाना भी होगा अन्यथा आपकी फसल का विकास रूक जाएगा। तो, कोंपल निकलते ही आप खर-पतवार को दूर करने में लग जाएं। आप चाहें तो लासों नामक केमिकल का भी छिड़काव कर सकते हैं। ये खर-पतवार को जला डालते हैं। समय रहते आप निराई-गुड़ाई करते रहेंगे तो भी खर-पतवार नहीं उगेंगे। ये भी पढ़े: गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

फसल की सुरक्षा

तिल के पौधों में एक महक होती है जो जंगली पशुओं को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। अब यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप फसल की सुरक्षा जानवरों से कैसे करते हैं। आवार पशु तिल के फसल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। इनमें छुट्टा गाय-बैल तो होते ही हैं, जंगली सूअर, नीलगाय भी होते हैं। ये एक ही रात में पूरी खेत चट कर जाने की हैसियत रखते हैं। तो आपको फसल की सुरक्षा के लिए खुद ही तैयार रहना होगा। पहरेदारी करनी होगी, अलाव जलाना होगा ताकि जानवर केत न चर जाएं।

4 माह में तैयार होती है फसल

मोटे तौर पर माना जाता है कि काला तिल 120 दिनों में तैयार हो जाता है। लेकिन, ये 120 दिन किसानों के बड़े सिरदर्दी वाले होते हैं। खास कर आवारा पशुओं से फसल की रक्षा करना बहुत मुश्किल काम होता है।

कटाई

kale til ki katai

120 दिनों के बाद जब आपकी फसल तैयार हो गई तो अब बारी आती है उसकी कटाई की। कटाई कैसे करें, यह बड़ा मसला होता है। अब हालांकि स्पेशियली तिल काटने के लिए कटर आ गया है पर हमारी राय है कि आप फसल को अपने हाथों से ही काटें। इसके लिए हंसुली या तेज धार वाले हंसिया-चाकू का इस्तेमाल सबसे बढ़िया होता है। फसल काटने के बाद उसे खेत में कम से कम 8 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए। इन 8 दिनों में फसल सूखती है। जब फस सूख जाए तो उसका तिल झाड़ लें। इस प्रक्रिया को कम से कम 4 बार करें। इससे जो भी फसल होगी, उसका पूरा तिल आप झाड़ लेंगे। मोटे तौर पर अगर फसल को जानवरों ने नहीं चरा, कीट नहीं लगे, तो मान कर चलें कि एक एकड़ में पांच क्विंटल से ज्यादा तिल आपको मिल जाएगा। अब आप देखें कि तिल को रखेंगे, बेचेंगे या कुछ और करेंगे।

काला तिल है गुणकारी

काला तिल बेहद फायदेमंद है। आप इसे भून कर खा सकते हैं। पूजा में भी इसका इस्तेमाल होता है। तावीज-गंडे में भी लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। नए शोधों में यह पता चला है कि काला तिल उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में बहुत मददगार होता है।

महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पैदावार

देश में महाराष्ट्र में काला, उजला और लाल, तीनों किस्म के तिल की सबसे ज्यादा पैदावार होती है। कारण है, वहां की शीतोष्ण जलवायु। महाराष्ट्र के कई जिले ऐसे हैं, जहां कभी बारिश होती है या फिर नहीं। ऐसे इलाकों में तिल की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में भी तिल की खेती जबरदस्त होती है तो मध्य प्रदेश और गुजरात भी इसमें पीछे नहीं।

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती सामान्य तौर पर सर्दी में होने वाली फसल है। मटर की खेती से एक अच्छा मुनाफा तो मिलता ही है। साथ ही, यह खेत की उर्वराशक्ति को भी बढ़ाता है। इसमें उपस्थित राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। अगर मटर की अगेती किस्मों की खेती की जाए तो ज्यादा उत्पादन के साथ भूरपूर मुनाफा भी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रुप में उपयोग किया जाता है. यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होती है. पकने के बाद इसकी सुखी फलियों से दाल बनाई जाती है.

मटर की खेती

मटर की खेती सब्जी फसल के लिए की जाती है। यह कम समयांतराल में ज्यादा पैदावार देने वाली फसल है, जिसे व्यापारिक दलहनी फसल भी कहा जाता है। मटर में राइजोबियम जीवाणु विघमान होता है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में मददगार होता है। इस वजह से
मटर की खेती भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भी की जाती है। मटर के दानों को सुखाकर दीर्घकाल तक ताजा हरे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मटर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और आयरन आदि की पर्याप्त मात्रा मौजूद होती है। इसलिए मटर का सेवन करना मानव शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। मटर को मुख्यतः सब्जी बनाकर खाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह एक द्विबीजपत्री पौधा होता है, जिसकी लंबाई लगभग एक मीटर तक होती है। इसके पौधों पर दाने फलियों में निकलते हैं। भारत में मटर की खेती कच्चे के रूप में फलियों को बेचने तथा दानो को पकाकर बेचने के लिए की जाती है, ताकि किसान भाई ज्यादा मुनाफा उठा सकें। अगर आप भी मटर की खेती से अच्छी आमदनी करना चाहते है, तो इस लेख में हम आपको मटर की खेती कैसे करें और इसकी उन्नत प्रजातियों के बारे में बताऐंगे।

मटर उत्पादन के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

मटर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मृदा में की जा सकती है। परंतु, गहरी दोमट मृदा में मटर की खेती कर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त क्षारीय गुण वाली भूमि को मटर की खेती के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 बीच होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मटर की खेती का उचित समय समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु मटर की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। क्योंकि ठंडी जलवायु में इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करते हैं तथा सर्दियों में पड़ने वाले पाले को भी इसका पौधा सहजता से सह लेता है। मटर के पौधों को ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं पड़ती और ज्यादा गर्म जलवायु भी पौधों के लिए अनुकूल नहीं होती है। सामान्य तापमान में मटर के पौधे बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं, किन्तु पौधों पर फलियों को बनने के लिए कम तापमान की जरूरत होती है। मटर का पौधा न्यूनतम 5 डिग्री और अधिकतम 25 डिग्री तापमान को सहन कर सकता है।

मटर की उन्नत प्रजातियां

आर्केल

आर्केल किस्म की मटर को तैयार होने में 55 से 60 दिन का वक्त लग जाता है। इसका पौधा अधिकतम डेढ़ फीट तक उगता है, जिसके बीज झुर्रीदार होते हैं। मटर की यह प्रजाति हरी फलियों और उत्पादन के लिए उगाई जाती है। इसकी एक फली में 6 से 8 दाने मिल जाते हैं।

लिंकन

लिंकन किस्म की मटर के पौधे कम लम्बाई वाले होते हैं, जो बीज रोपाई के 80 से 90 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देते हैं। मटर की इस किस्म में पौधों पर लगने वाली फलियाँ हरी और सिरे की ऊपरी सतह से मुड़ी हुई होती है। साथ ही, इसकी एक फली से 8 से 10 दाने प्राप्त हो जाते हैं। जो स्वाद में बेहद ही अधिक मीठे होते हैं। यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार की गयी है। यह भी पढ़ें: सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

बोनविले

बोनविले मटर की यह किस्म बीज रोपाई के लगभग 60 से 70 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देती है। इसमें निकलने वाला पौधा आकार में सामान्य होता है, जिसमें हल्के हरे रंग की फलियों में गहरे हरे रंग के बीज निकलते हैं। यह बीज स्वाद में मीठे होते हैं। बोनविले प्रजाति के पौधे एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 100 से 120 क्विंटल की उपज दे देते है, जिसके पके हुए दानो का उत्पादन लगभग 12 से 15 क्विंटल होता है।

मालवीय मटर – 2

मटर की यह प्रजाति पूर्वी मैदानों में ज्यादा पैदावार देने के लिए तैयार की गयी है। इस प्रजाति को तैयार होने में 120 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। इसके पौधे सफेद फफूंद और रतुआ रोग रहित होते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के आसपास होता है।

पंजाब 89

पंजाब 89 प्रजाति में फलियां जोड़े के रूप में लगती हैं। मटर की यह किस्म 80 से 90 दिन बाद प्रथम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसमें निकलने वाली फलियां गहरे रंग की होती हैं तथा इन फलियों में 55 फीसद दानों की मात्रा पाई जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा प्रभात

मटर की यह एक उन्नत क़िस्म है, जो कम समय में उत्पादन देने के लिए तैयार की गई है | इस क़िस्म को विशेषकर भारत के उत्तर और पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है। यह क़िस्म बीज रोपाई के 100 से 110 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाती है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 40 से 50 क्विंटल की पैदावार दे देती है। यह भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

पंत 157

यह एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 125 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। मटर की इस प्रजाति में पौधों पर चूर्णी फफूंदी और फली छेदक रोग नहीं लगता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 क्विंटल तक की पैदावार दे देती है।

वी एल 7

यह एक अगेती किस्म है, जिसके पौधे कम ठंड में सहजता से विकास करते हैं। इस किस्म के पौधे 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों में निकलने वाली फलियां हल्के हरे और दानों का रंग भी हल्का हरा ही पाया जाता है। इसके साथ पौधों पर चूर्णिल आसिता का असर देखने को नहीं मिलता है। इस किस्म के पौधे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 से 80 क्विंटल की उपज दे देते हैं।

मटर उत्पादन के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार करें

मटर उत्पादन करने के लिए भुरभुरी मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से खेत की मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए खेत की सबसे पहले गहरी जुताई कर दी जाती है। दरअसल, ऐसा करने से खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय नष्ट हो जाते हैं। खेत की जुताई के उपरांत उसे कुछ वक्त के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है, इससे खेत की मृदा में सही ढ़ंग से धूप लग जाती है। पहली जुताई के उपरांत खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना पड़ता है।

मटर के पौधों की सिंचाई कब और कितनी करें

मटर के बीजों को नमी युक्त भूमि की आवश्यकता होती है, इसके लिए बीज रोपाई के शीघ्र उपरांत उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है। इसके बीज नम भूमि में बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं। मटर के पौधों की पहली सिंचाई के पश्चात दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के समयांतराल में करना होता है। तो वहीं उसके उपरांत की सिंचाई 20 दिन के उपरांत की जाती है।

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण किस प्रकार करें

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का उपयोग किया जाता है। इसके लिए बीज रोपाई के उपरांत लिन्यूरान की समुचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अगर आप प्राकृतिक विधि का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है। इसके पौधों को सिर्फ दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। साथ ही, हर एक गुड़ाई 15 दिन के समयांतराल में करनी होती है।
किन्नू और संतरे की फसल के रोग और उनकी रोकथाम

किन्नू और संतरे की फसल के रोग और उनकी रोकथाम

किन्नू और संतरे की फसल कई रोगों से ग्रषित होती है। इन रोगों की जानकारी और रोकथाम निम्नलिखित हैं :

1. गमोसिस (Gummosis)

इसके लक्षण पत्तियों के पीलेपन के रूप में प्रकट होते हैं, इसके बाद छाल का चटकना और अधिक मात्रा में सतह पर गोंद लगना। संक्रमण का मुख्य स्रोत संक्रमित रोपण सामग्री है। गम्भीर संक्रमण के कारण छाल पूरी तरह से सड़ जाती है और करधनी के कारण पेड़ सूख जाता है।

प्रभाव

पौधा आमतौर पर भारी रूप से
फूलों से खिलता है और फल बनने से पहले ही मर जाता है। ऐसे मामलों में, रोग को फुट रूट या कॉलर-रूट कहा जाता है। ये रोग उन स्थानों पर ज्यादा आता है, जहाँ पर खेत में अधिक पानी खड़ा रहता है।

उपाय

उपाय जैसे पर्याप्त जल निकासी का प्रबंधन करना, साथ ही उचित स्थल का चयन, रिंग विधि का उपयोग अपनाकर और पेड़ के तने को पानी के संपर्क से बचाना है। वैकल्पिक रूप से रोग के हिस्सों को एक तेज चाकू से खुरच कर निकाल देना चाहिए इसके बाद कटी हुई सतह को मर्क्यूरिक क्लोराइड (0.1%) या पोटेशियम परमैंगनेट के घोल से कीटाणुरहित कर देना चाहिए। जमीनी स्तर से 1 मीटर ऊपर तने की पेंटिंग रोग को नियंत्रित करने में मदद करता है। साथ ही, रिडोमिल एमजेड 72 @ 2.75 ग्राम/ली का छिड़काव और ड्रेंचिंग करें या एलियट (2.5 ग्राम/लीटर) रोग को नियंत्रित करने में प्रभावी है।

2. स्कैब या वेरिकोसिस

प्रारंभिक अवस्था में घाव पत्तियों की निचली सतह पर छोटे अर्ध-पारभासी छिद्र के रूप में दिखाई देते हैं। अंत में पत्तियां झुर्रीदार, टूटी हुई और जल जाती हैं। फलों पर, घाव गहरे बने होते हैं, जो आखिर में मिल कर पूरे फलों को खराब कर देते हैं।

उपाय

रोगग्रस्त पत्तियों, टहनियों और फलों को एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए। कार्बेन्डाजिम 0.1% का छिड़काव करना काफी प्रभावी है।

3. कंकेर

ये रोग पत्ती, टहनी और फलों को प्रभावित करता है। पत्ते पर घाव आमतौर पर पीले रंग के साथ गोलाकार होते हैं और ये खोखले होते हैं व पत्तीयों के दोनों किनारों पर दिखाई देते हैं। ज्यादा बीमारी फैलाने पर फलों पर भी धब्बे बन जाते हैं। फलों पर धब्बे बनने के कारण बाजार मूल्य को कम करते हैं। ये रोग लीफ मायनर के द्वारा फैलता है, तो हमें सब से पहले इस किट को नियंत्रण करना होगा।

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उपाय

इस बीमारी के उपचार के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट 500-1000 पीपीएम या फाइटोमाइसिन 2500 पीपीएम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 0.2% को पानी के साथ घोल बनाकर 15 के अंतराल पर छिड़काव करें। नया फल आने से पहले लीफ माइनर को नियंत्रित करने के लिए किसी भी कीटनाशी का प्रयोग करें। मानसून की शुरुआत से पहले संक्रमित टहनियाँ की कटाई - छँटाई जरूर करें।

4. हरितमा रोग

इस रोग के लक्षण पत्तियों का झड़ना, पौधे पर बहुत कम पत्तियां रह जाना और पत्तियां छोटी हो जाती हैं। टहनियाँ आगे से पीछे की ओर सूखने लग जाती हैं। पौधे पर बिना मौसम के फूल आ जाते हैं, जो फल बनते हैं वो छोटे होते हैं या पकने के बाद भी हरे ही रह जाते हैं। ये एक विषाणू जनक रोग है और ये रोग सिट्रस सिल्ला नामक कीट के द्वारा फलता है। इस के लिए सब से पहले इस कीट को नियंत्रित करें। इस को नियंत्रित करने के लिए फॉस्फॅमिडों 25 ML या पैराथीओन 25ML या इमिडाक्लोप्रिड कीटनाशक का प्रयोग 10 लीटर पानी की दर से मिला कर पौधे के ऊपर स्प्रे करें। टेट्रासाइक्लिन 500 पीपीएम का स्प्रे भी रोग के रोकथाम में बहुत उपयोगी है।